Natasha

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राजा की रानी

मैं हाल ही बंगाल से आ रहा था और सो भी देहात से। कलकत्ते में स्त्री-स्वाधीनता है- कानों से अवश्य सुनी है, पर ऑंखों नहीं देखी। किन्तु, क्या स्वाधीनता प्राप्त करके भले घर की 'अबलाएँ' भी एक जवान मर्द पर खुले आम सड़क पर आक्रमण करके लट्ठबाजी कर सकती हैं! क्रमश: उनके इतनी अधिक 'सबला' हो उठने की सम्भावना मेरी कल्पना के भी परे की वस्तु थी। बहुत देर तक हतबुद्धि की तरह खड़े रहने के बाद मैंने अपने कार्य के लिए प्रस्थान किया। मन ही मन कहने लगा कि स्त्री-स्वाधीनता भली है या बुरी, समाज के आनन्द की मात्रा इससे घटेगी या बढ़ेगी- यह विचार तो किसी और दिन करूँगा; किन्तु, आज अपनी ऑंखों जो कुछ देखा उससे तो मेरा सारा चित्त एकदम उद्भ्रान्त हो गया।


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अभया और रोहिणी को उनके नये वास-स्थान में- नयी घर-गिरिस्ती में प्रतिष्ठित करके जिस दिन मैं अपने जिन के लिए आश्रय खोजने रंगून के राज-मार्ग पर निकल पड़ा, उस दिन यह मैं नहीं कहना चाहता कि उन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में मेरे मन में बिल्कुाल किसी तरह की ग्लानि छू भी नहीं गयी थी। किन्तु, इस अपवित्र विचार को दूर करने में भी मुझे अधिक देर नहीं लगी। क्योंकि, दो खास उम्र के स्त्री-पुरुषों को किसी खास अवस्था में देखने-मात्र से ही उनके बीच में किसी सम्बन्ध-विशेष की कल्पना कर लेना कितनी भारी भ्रान्ति है, यह शिक्षा मुझे पहले ही मिल चुकी थी। और भविष्यत् की जटिल समस्या को भी भविष्यत् के ही हाथ सौंप देने में मुझे किसी तरह की हिचक नहीं होती, इसलिए, केवल अपना ही भार अपने कन्धों पर लादकर उस दिन प्रभात के समय उनके नये वास-स्थान से बाहर निकला।

आजकल की तरह उस समय किसी भी नये बंगाली के बर्मा में कदम रखते ही पुलिस के प्रकट और अप्रकट कर्मचारियों का दल उनसे सवाल पर सवाल करके, उन पर व्यंग्य कसके और अपमान करके तथा बिना कसूर थाने में खींच ले जाकर और डर दिखाकर हद दर्जे की तकलीफ नहीं देता था। मन में किसी तरह का पाप न हो, तो उन दिनों प्रत्येक परिचित-अपरिचित को निर्भयता से घूमने-फिरने का अधिकार था और आजकल की तरह अपने आपको निर्दोष प्रमाणित करने का अत्यन्त गुरु भार भी नवागत बंगवासी के कन्धों पर नहीं लादा गया था। इसलिए, मुझे खूब याद है कि स्वच्छन्द चित्त से किसी आश्रय-स्थान की खोज में उस दिन सुबह से दोपहर तक राह-राह खूब घूमता फिरा। राह में एक बंगाली से भेंट हुई। वह मजदूर के सिर पर तरकारी का बोझा लिये हुए पसीना पोंछते-पोंछते तेज़ी से चला जा रहा था; मैंने पूछा, “महाशय, नन्द मिस्री का घर कहाँ है, क्या आप बतला सकते हैं?”

वह आदमी रुककर खड़ा हो गया, “कौन नन्द? क्या आप रिबिट-घर के नन्द पागडी को खोज रहे हैं?”

मैंने कहा, “सो तो जानता नहीं महाशय, कि वे किस घर के हैं। उन्होंने केवल यही परिचय दिया था कि वे रंगून के विख्यात नन्द मिस्री हैं।” उस आदमी ने एक प्रकार का असम्मान-सूचक मुँह का भाव बनाकर कहा, “ओ:-मिस्तरी! ऐसे तो सभी अपने को मिस्तरी कहलवाते हैं महाशय, पर मिस्तरी होना सहज नहीं है। मर्कट साहब ने जब मुझसे कहा था कि हरिपद, तुमको छोड़कर मिस्तरी होने लायक आदमी मुझे और कोई नहीं दीख पड़ता, तब क्या आप जानते हैं कि बड़े साहब के समीप कितनी अनिश्चित अर्जियाँ पड़ी हुई थीं? करीब एक सौ के। आरी और बसूले का जोर हो, तो अर्जियों की जरूरत ही क्या है? काटकर जो जोड़ दे सकता हूँ! किन्तु महाशय, आप जानते हैं...”

मैंने देखा, अनजान में ही मैंने इस आदमी के ऐसी जगह पर चोट पहुँचा दी है जिसकी मीमांसा होना कठिन है। इसलिए, चट से मैंने रुकावट डालकर कहा, “फिर, नन्द नाम के किसी भी आदमी को आप नहीं जानते?”

“यह आपने खूब कहा! चालीस वर्ष से रंगून में रह रहा हूँ, मैं जानता किसे नहीं? नन्द क्या एक है? तीन-तीन नन्द हैं! आपने नन्द मिस्तरी कहा न? कहाँ से आ रहे हैं आप? शायद बंगाल से, न? ओह, तब कहो न कि टगर के मर्द को पूछ रहे हैं?”

मैंने सिर हिलाकर कहा, “हाँ, हाँ, जरूर वही!”

वह बोला, “तो फिर यह कहिए। परिचय पाए बगैर पहिचानूँ कैसे? आइए मेरे साथ तकदीर के जोर से नन्द कमा खा रहा है महाशय, नहीं तो नन्द पागड़ी भी क्या कोई मिस्तरी है? महाशय, आप कौन हैं?”

यह सुनकर कि मैं ब्राह्मण हूँ, उस आदमी ने रास्ते पर ही झुककर मुझे प्रणाम किया। बोला, “वह आपकी नौकरी लगा देगा? साहब से कहकर आपकी तजबीज लगवा सकता है जरूर; किन्तु, दो महीने की तनख्वाह उसे पहले ही घूँस में देनी होगी। दे सकेंगे क्या? दे सकें तो अठारह-बीस आने रोज की नौकरी लगा सकता है। इससे अधिक की नहीं।”

मैंने उसे बताया कि फिलहाल तो मैं नौकरी की उम्मेदवारी में नहीं जा रहा हूँ- थोड़े से आश्रय की तजवीज की गरज से ही बाहर निकला हूँ, और, इसकी आशा नन्द मिस्री ने जहाज पर दिलाई थी।

यह सुनकर हरिपद मिस्री ने आश्चर्य से पूछा, “महाशय, आप भले आदमी हैं, तो फिर, भले आदमियों के 'मेस' में क्यों नहीं जाते?” मैंने कहा, “मेस कहाँ है, सो तो जानता ही नहीं।”

उसे भी नहीं मालूम, यह उसने स्वीकार किया। किन्तु, उस जून खोज करके बताने की आशा देकर वह बोला, “किन्तु, इस समय तो नन्द से मुलाकात हो न सकेगी; वह काम पर गया है, टगर साँकल दिए सो रही है और पुकार कर उसकी नींद भंग करने में खैर नहीं!”

यह तो खूब जानता था। इसलिए रास्ते के बीच मुझे वहाँ करते देखकर उसने हिम्मत देकर कहा, “न गये वहाँ तो क्या! दादा ठाकुर का बढ़िया होटल सामने ही है। वहाँ स्नान-भोजन करके नींद ले लीजिए, उस बेला फिर देखा जायेगा।”

हरिपद के साथ बातें करते-करते जब मैं दादा ठाकुर के होटल में पहुँचा तब होटल के डायनिंग रूम में (=भोजन के कमरे में) करीब पन्द्रह आदमी भोजन करने बैठे थे।

अंगरेजी में दरो शब्द हैं 'इन्स्टिक्ट' और “प्रेज्युडिस', किन्तु, हमारे यहाँ, केवल एक ही शब्द है 'संस्कार'। यह समझना कठिन नहीं है कि एक जो है सो दूसरा नहीं। अर्थात् दोनों शब्द अंगरेजी में भिन्न-भिन्न भाववाची हैं। किन्तु दादा ठाकुर के उक्त होटल के सम्पर्क में आकर यह बात आज पहले ही पहल मुझे मालूम हुई कि हम लोगों का जाति-भेद, खान-पान आदि वस्तुएँ 'इन्स्टिक्ट' के हिसाब से 'संस्कार' नहीं है, और यदि ये 'संस्कार' हों भी तो कितने तुच्छ हैं- इनके बन्धन से मुक्त होना कितना सहज है, यह सब प्रत्यक्ष देखकर मैं आश्चर्य से चकित हो गया। हमारे देश में यह जो असंख्य जाति-भेद की श्रृंखला है, इसे दोनों पैरों में पहिनकर झनझनाते हुए विचरण करने में कितना गौरव और मंगल है, इसकी आलोचना तो इस समय रहने दूँगा; किन्तु यह बात मैं निस्सन्देह कह सकता हूँ कि जो लोग इसे अपने छोटे-छोटे-से गाँवों में बिल्कुनल बेखटके जमे हुए पुरखों से चला आता हुआ संस्कार बताकर स्थिर रखे हुए हैं, और इसके शासन-जाल को तोड़ने की दुरूहता के सम्बन्ध में जिन्हें लेशमात्र भी अविश्वास नहीं है, उन लोगों ने इस बड़े भारी भ्रम को जान-बूझकर ही पाल रक्खा है। वास्तव में जिस देश में खाने-पीने में छुआछूत का विचार प्रचलित नहीं है उस देश में कदम रखते ही यह अच्छी तरह देखा जाता है कि यह छप्पन पुश्तों की खाने-पीने में छुआछूत रखने की सांकल न जाने कैसे रातों-रात खुलकर अलग हो जाती है। विलायत जाने से जाति चली जाती है इसका एक मुख्य कारण यह बतलाया जाता है कि वहाँ निषिद्ध माँस खाना पड़ता है। यहाँ तक कि जो लोग अपने देश में भी कभी माँस खाना पड़ता है। यहाँ तक कि जो लोग अपने देश में भी कभी माँस नहीं खाते, उनकी भी चली जाती है; कारण, जिन्होंने जाति मारने का इजारा ले रखा है वे पंच लोग कहते हैं कि वहाँ मांस न खाने पर भी समझ लेना चाहिए कि 'खाया ही है'।

और उनका यह कहना निहायत गलत भी नहीं है। बर्मा तो तीन-चार दिन का ही रास्ता है; फिर भी मैंने देखा है कि पन्द्रह आने बंगाली भले आदमी जिनमें शायद ब्राह्मण ही अधिक होंगे- क्योंकि इस युग में उन्हीं के लोभ ने सबको मात कर दिया है- जहाज के होटल में ही सस्ते दामों में पेट भर लेते हैं तब कहीं सूखी जमीन पर पदार्पण करते हैं। उस होटल में मुसलमान और गोआनीज बावर्ची क्या राँधकर 'सर्व' करते हैं, यह सवाल अप्रिय हो सकता है; किन्तु, वे लोग हविष्यान्न पकाकर केले के पत्तों में नहीं परोसते होंगे, यह अनुमान करना तो भाटपाड़े के भट्टाचार्यों के लिए भी शायद कठिन नहीं है- फिर मैं तो ठहरा साथ का मुसाफिर। जो लोग कम से कम यह सब नहीं खाना चाहते वे भी हार मानकर अन्त में चाह-रोटी, फल फूलादि तो खाते ही हैं! मैंने देखा है कि एकदम निषिद्ध मांस से लेकर मत्तमान और रम्भा (केले की दो जातियाँ) तक सब कुछ एक में ही गड्डमड्ड करके जहाज के कोल्ड-रूम में रक्खा जाता है और यह काम किसी की नजर से छुपाकर करने की पद्धति भी मैंने जहाज के नियम-कानूनों में नहीं देखी। हाँ, फिर भी, आराम की बात यह है कि बर्मा- जाने वाले यात्री की जाति जाने का कानून, शायद, किसी तरह शास्त्रकारों की 'सिविल कोड' की नजर बचा गया है। नहीं तो शायद फिर एक छोटी-मोटी ब्राह्मण-सभा की जरूरत होती! जाने दो, भले लोगों की बात आज यहीं तक रहे।

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